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Wednesday, May 29, 2013

क्लास में चलते संवाद का एक अंश



आज रोल नम्बर दरवाजे से शुरु होंगे सुनते ही मोनिका का जैसे दिमाग खराब ही हो गया हो। वह खीजती-सी अपना बेग उठाए खिड़की की तरफ चली। "प्राची तू मेरी सीट पर बैठ जा ना। मुझे खिड़की वाली सीट में बैठने दे ना।" कमरे के विभाजन पर ...."रोल नम्बर से बैठना जरूरी है" टिप्पणी करती प्राची ने उससे सीट बदल ली। क्योंकि मोनिका का नम्बर आगे वाली सीट पर था।

मोनिका भी सबके बीच से निकलकर खिड़की वाली सीट पर बैग पटकते हुए डेस्क पर चढ़कर खिड़की से लगकर जा बैठी। उसका पूरा ध्यान उस खिड़की के बाहर ही था। उसकी दोस्त ने उसे कई बार टोका "सुन ना, देख, जल्दी इधर आ ना,” मगर वह टस से मस न हुई। सबकी नज़र धीरे-धीरे उसी पर जा टिकी। एक खिलखिलाहट का माहौल इस कमरे में बन चुका था। जिसका केन्द्र बिन्दू सिर्फ मोनिका बनी रही। तभी वंशिका ने झुंझला कर उसका हाथ खींचते हुए कहा...
वंशिका- ऐ पागल...सब तुझपर हस रहे हैं क्या देख रही है बाहर?
मोनिका- चल पागल होगी तू। कल हमने खिलौनेवाला पाठ पढ़ा था न तो खिलौनेवाला दिख गया। बस उसे ही देख रही थी। क्या-क्या है उसके पास? मेरे खिलौने तो मेरे छोटे भाई-बहन ने ले लिए अब।
प्राची- मेरी तो फेवरिट है ये कविता।
मोनिका- मैने तो पहले से ही ये कविता पढ़ ली थी। लेकिन अब मैं खिलौनों से नहीं खेलती। मेरा भाई है ना रोने लगता है। उसकी चीज़ को हाथ भी लगाओ तो।
प्राची- हंसते हुए, मैं तो जब भी मेले जाती हूँ। हर बार कुछ न कुछ खरीद कर जरूर लाती हूँ। मेरी बहन-भाई भी। फिर हम खेलते हैं एक साथ। मेरे खिलौने कभी नहीं टूटते बहुत पुराने-पुराने खिलौने रखे हैं मेरे पास।
मोनिका- तूने इस बार क्या लिया था मेले से?
प्राची- बर्तनों का सेट वो भी बढ़े बर्तनों का।
मोनिका- मै तो नहीं लेती मेले से। मेले में हर चीज़ महंगी मिलती है। झूले देखे हैं जो हमारी गली के बाहर आता है वो 5 रुपये मे इतनी देर झूलाता है। मेले में तो चार ही चक्कर में उतार देता है और पैसे भी ज्यादा लेता है। यह बात सुनकर आशी बोल पड़ी- अरे हम पहले जहां रहते थे न वहां पर ये गुड्डे-गुड़िया बनते थे। इतने सारे गुड्डे-गुड़िया ‍ओटो-रिक्शा में भर-भर जाते थे। मुझे लगता है वो ही दूकान पर आ जाते हैं बाद में पैक होकर। मेरे जन्मदिन पर नेहा ने अपने घर से छोटा सा गुड्डा मुझे गिफ्ट दिया था।
प्राची- तुझे अब पता चला... मेले में जो रावन मिलते हैं ना हमारी गली के लड़के भी वैसे रावन बना लेते हैं और फिर रात को मेले वाले रावन के जलने के बाद उसे भी जला देते हैं।
आशी- "तारे ज़मीन पर”फिल्म में देखा था। वो बेकार चीज़ों से कैसे इतनी अच्छी नाव बनाता है।

"मैडम आ रही है, मैडम आ रही है" हांफते शब्दों के साथ भागती हुई एक साथी कमरे में दाख़िल हुई। कमरा एकदम सवरा-सा हो गया। अपनी-अपनी सीटों को थामते कदमों की हड़बड़ाहट में कविता पर चल रहा संवाद भी गुम हो चला एक मुस्कुराहट के साथ।


Tuesday, May 28, 2013

टीचर डे

प्रिंसिपल साहिबा से मिलने के बाद आज जब क्लास की तरफ रुख़ किया तब तक कुछ अन्दाज़ नहीं था कि आज क्या है? ना ही प्रिंसिपल से बात करते हुए ऐसा कुछ हमारी बातों के दरमियां आया। सिड़ियों से ऊपर जाते हुए कुछ साथी बहुत खूबसूरत ड्रेस में तैयार नज़र आए...नए कपड़े, कपड़ों का मेच खाता मेकअप और बेग भी। क्या बात है।

देखते ही नज़र ने उनका पीछा उनके दूर जाने तक किया। फिर कदम ऊपर जाती सिड़ियों पर दोबारा बढ़े। आज गैलेरी में सभी टीचरों का गुट जमा था। वह आज अपनी-अपनी क्लास छोड़कर यहीं डेक्स लगाकर डेरा जमाए हुए बैठी हैं।

दुआ-सलाम, हाय हैलो से जब आगे बढ़े तो एक टीचर ने कहा- आज भी कुछ कराने वाली हैं क्या आप? कुछ ख़ास करवाएं तो हमें भी बताना....उनकी बात पर हामी भरते हुए आगे क्लास की तरफ बढ़ी....क्लास में आवाज़ें तो रोज़ाना जैसी ही है लेकिन सब के सब आज पीछे नज़र आए...नज़दीक पहुंचने पर पता चला कुछ साथी तैयार हो रही थी।

तभी एक साथी बड़ी तेज़ आवाज़ में बोली- “ आज ये गीता मैम बनी हैं। आज ये हमें पढ़ाएंगी। लेकिन क्लास में इनकी बात कोई सुन नहीं रहा इसलिए ये चुपचाप आकर पीछे बैठ गई हैं और आपस में बाते कर रही हैं। कुछ सैकेंड में ही समझ आ गया था आज कि "टीचर डे" है।

आज टीचर का रोल ये साथी निभाने वाले हैं। सबको अपनी-अपनी सीट पर बिठाकर आज ये टीचर बने साथी इस क्लास को रचने वाले हैं। क्लास शुरु होते ही कुछ पल की शान्ति और फिर से आवाज़ों की गुनगुनाहट शुरु हो चुकी है। सबकी नज़र टीचर बनी उन दोनों साथियों पर थी और अब वह उनकी बातचीत का हिस्सा भी बनी। अब उनके कपड़ों को और मेकअप को दोहराया जा रहा था और फिर गीता मैडम से कम्पेयर करके बताया जा रहा था कि गीता मैम ऐसे कपड़े पहनती है, ऐसे बात करती हैं, ऐसे चलती हैं, इस तरह पढ़ाती हैं और इस तरह बात करती हैं। वह दोनों साथी जो एक ही टीचर का रोल अदा करने वाली है

पूरी क्लास अब इस प्ले के लिए तैयार एक दम शान्त थी। इस प्ले के दर्शक भी यही थे, कलाकार भी यही थे और इसे रचने वाले रचयिता भी यही थे। प्ले शुरु हुआ.....टीचर बनी साथी कमरे में दाख़िल हुई, “गुड मोर्निंग मैम" कहते हुए सभी साथियों ने उनका स्वागत किया। "सिटडाऊन" कहती हुई उस टीचर ने हाथों से बैठने का इशारा किया। तभी एक साथी ने तारीफ में कहा- मैम आप आप बहुत अच्छी लग रही हो। टीचर- मुस्कुराती हुई "थैंक्यू माई डियर”। फिर डेक्स पर हाथ की थपकी के साथ सबको एक बार फिर शान्त किया । अटैंडस शुरु हुई और उसके बाद एक पाठ पढाया गया।....(लग रहा था ये प्ले टीचर और स्टूडेंट के बीच ही चलेगा।) लेकिन वह टीचर एक संवादक के रोल प्ले करती नज़र आई। पाठ के चलते-चलते वह उसपर संवाद करने लगी.... कहानी में नए-नए चित्रों की कल्पना साथियों से करवाने लगी। इस वक़्त क्लास बहुत उमदा लग रही थी। इस प्ले में सब भागीदारी भी इमानदारी से निभा रहे थे।

टीचर से ये कल्पना नहीं की या देखा नहीं, वह उस पाठ के सवाल तला‌श रही थी। साथी भुला चुके थे। वह कौन-सी टीचर बनी और वह खुद भी याद नहीं रख पाई। प्ले करते-करते वह सब सिर्फ संवादक की भूमिका में नज़र आ रहे थे। वह साथी एक अच्छे टीचर की कल्पना को खोल रही थी जिसने अपने संवाद से पूरी क्लास को बांध रखा था।