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Saturday, November 23, 2013

बराबरी और एक दूसरे को सुनने का संदर्भ


स्कूल को एक मंच वाले ढांचे में जब बदला तो एक बराबरी और एक दूसरे को सुनने का संदर्भ नजर आता है। जहाँ किसी को नकारा नहीं जा रहा बल्कि उसे न्यौता दिया जाता है। जहां जिसको जो आता है वो उसे अपने अंदाज में बयां करे,उसे एक दूसरे से बांटे। इसमे एक दूसरे से खुद को सींचने का रिश्ता साथियों की आपसी जुगलबंदी को बनाने की ओर इशारा करता है। 
इस जुगलबंदी में टीचर का होना कोई जरूरी नहीं लगता। जब ऐसा एक संदर्भ बना कर छोड़ दिया जाए 
तो स्कूल में अपने आप ही सभवनाएं बनने लगती है।
 

साथी स्कूल में अपने छोटे-छोटे किस्सों, अपनी हरकतों और नियमित रूप से अपनी जगह में अपने शब्दों से नयी भाषा की रचना करते है। जो नियमित होती तो है पर दिखाई नहीं देती।

सुने तो आवाज़ें हैं शोर नहीं

सभी आँखे बंद किए शांत बैठे थे। पर सबके सब बार-बार अपनी आँखे खोलकर बाहर क्या चल रहा है  इसका ज़ायका भी ले रहे हैं। इतने में, इसी बीच सबसे पीछे एक लड़की बोली, "मैम, आगे वाले बच्चे बातें  हैं इस वजह से हमारी आँखे बार-बार खुल रही है।  प्लीज इन्हें चुप करवा दो।" तभी एक और आवाज़ मैम , शालू भी बात कर रही है।  एक बार फिर सभी की आँखे बंद कर, बाहर की, कमरे की और आसपास से आ रही आवाज़ों को ध्यान से सुनने को कहा। 

इस बार सभी आँखे बंद किए बिल्कुल शांत बैठे थे।  अब किसी की भी आँखे बार-बार नहीं खुल रही थी। सभी किसी धयान में खोए नज़र आ रहे थे।  वे अपनी गर्दन कभी कहीं घुमाते तो कभी कहीं, लगता जैसे किसी ख़ास आवाज़ के नज़दीक जेन की कोशिश कर रहे हों।  कुछ चेहरों पर तो मुस्कराहट फूट पड़ी थी।  न जेन वो क्या सुन रहे थे।  कमरा एकदम शांत जैसे वो खाली हो लेकिन बाहर की और आसपास की आवाज़ों में कमरे को खली नहीं होने दिया। बहुत देर के बाद उन्होंने अपनी आँखे खोली।  धीरे-धीरे सब अपनी आँखे  मसलते हुए खोल रहे थे।  लेकिन कुछ  आँखे बंद किए बैठे थे।  तभी साथ वाली ने उसे झंझोड़ते हुए कहा,  'ये आँखे खोल ले। ' सबकी आँखे खुल चुकी थीं।

 > एक-एक करके सबने बताना शुरू किया।

चिड़ियों की आवाज़
पीछे वाली क्लास के शोर की आवाज़
बाहर से मंदिर की घंटी की आवाज़
पानी के लिए चिल्लाती एक लड़की की आवाज़
एक लड़का किसी को बुला रहा था
पैरों के घिसने की आवाज़
सीढ़ियों से उतरने की आवाज़
सीमा मैडम  की अटेंडेस लेने की आवाज़
बाहर वाले पार्क में बछछों की आवाज़

> कुछ ने आँखे बंद किए कई तस्वीरें बना डाली।  जैसे,

मुझे लगा मेरा छोटा भाई रो रहा है और मम्मी मुझे आवाज़ लगा रही है। 
मेरी गली में मेरे भैया बहुत तेज़ डेक चलते हैं तो मुझे लगा जैसे गाने चलने वाले हैं।
मुझे लगा मैं अपन गली में खेल रही हूँ।
मुझे लगा मैं अपनी छत में हूँ और तेज़ हवा चल रही है।

आँखे बंद करने के बात करने और आवाज़ सुनने में एक झिलमिलाता हुआ रिश्ता नज़र आया जो दूरी वाली हर चीज़ को उनके बिल्कुल पास लाकर एक फ़ोटो खींच देती है। 

   

Tuesday, November 19, 2013

ख़ामोशी का दिन

पढ़ने की  बारी अब राधा की  थी।  उसने किताब न पढ़ पाने को लेकर अपनी कठिनाई को नहीं बल्कि न पढ़ने की इच्छा को तवज्ज़ो दी।  आज वो अपनी बारी आने पर चुप हो गई और इधर-उधर देखने लगी।  मगर आज उसे पढ़ना ही होगा क्योंकि टीचर ने उसे न पढ़ने वाले बच्चों के कैनवस में उतार लिया था।  एक -दो शब्द पढ़कर उसने फिर चुप्पी साध ली। 

इधर टीचर की ओर से नसीहतों  की बारिश-सी  बरस रही थी जिसमे पूरी क्लास भीग रही थी। लेकिन वह टस से मस न हुई। उसने जैसे ठान लिया था कि वह आज नहीं पढ़ेगी।  टीचर की सारी बातें बे-असर होकर उसके आगे से निकलती जा रही थी।  वह चुप्पी साधे खड़ी  रही  और इतने पर भी कुछ न बोली। वो सबकी नज़रों से अपनी नज़र बचाते हुए किताब में निगाह गढ़ाए हुए थी। दरअसल, इच्छा और अनिच्छा के बीच उपजती कमज़ोर और ताक़तवर टकराहट कुछ देर के लिए ख़ामोशी उधार ले आती है।  कमज़ोर की ओर से कोई प्रतिक्रिया न करना सामने वाले की ताकत के वार को बार-बार परास्त  करता जाता है।  राधा भी आज शायद समझ चुकी थी कि चुप्पी  के सामने टीचर की एक भी नहीं चलने वाली। 

क्लास में सबके लिए पढ़ना हमेशा दिलचस्प नहीं होता। कई बच्चे पाठ पढ़ने और ज़िन्दगी जीने की कश्मकश में जी रहे होते हैं।  कभी-कभी पाठ उनकी रोज़ाना की ज़िन्दगी के पैमाने को नहीं छू पाता। अक्सर पाठ और पाठक के जुड़ाव के बीच मेल-जोल न बनने से कश्मकश और उबाऊपन की धारा  निकल पड़ती है। 

अचानक दरवाज़े पर किसी के दस्तक ने उनके नसीहतों  को रोक दिया और उन्होंने पलट कर देखते हुए पूछा, "कहिए, क्या काम है ?"

उस चेहरे ने अटकते हुए जवाब में कहा, "जी, मैं शालू का पिता हूँ।  आपने बुलाया था?"

पूरी क्लास का ध्यान उस चेहरे ने पल में बटोर लिया था। 

टीचर ने शालू को बुलाते हुए अपनी बात कुछ यूँ कही, "आप ये साफ़ -साफ़  बताइये कि आपको इस लड़की को पढ़ाना है या नहीं"

"क्यों, क्या हुआ मैंडम जी?" शालू के पिताजी ने दबी-सी आवाज़ में पूछा।


कुछ पल पहले के गुस्से से ही भरी टीचर न्र कहना शुरू किया, " आप लोग महीनों गायब रहते हो और वजीफे के  टाइम पर नज़र आते हो।  आपकी लड़की स्कूल कितना कम आती है।  पढ़ने में एकदम ज़ीरो है इसका ध्यान भी है कुछ आपको ?"

टीचर की बात और उनकी शिकायत का अंदाज़ शालू को कतई पसंद न आया।  एक पल उसने टीचर को बड़ी बेरुखी से घूरा  और दूसरे पल अपने पिता को अपमानित-सा खड़े देखकर नज़रें झुका ली।  पूरी क्लास एकदम खामोश थी। 

कुछ पल के बाद उसके पिताजी ने कहा, "मैडम, मैं तो काम के सिलसिले में अक्सर बाहर ही रहता हूँ इसलिए बच्ची कब स्कूल आती है कब नहीं, इसका पता ही नहीं चल पाता। लेकिन अब ये रोज़ स्कूल आएगी।  आप चिंता न करें। "


शालू के पिता के जाने के बाद टीचर के रैवेये पर साथियों की फिर से मिली-जुली आवाज़े ज़ोर पकड़ने लगी।  ठीक उसी वक़्त एक फटकार भरी आवाज़ आई और काफी देर के लिए पूरी क्लास एकदम खामोश थी। 


Friday, July 12, 2013

कहानी में क्या-क्या पढ़ा ?

 
कमरे में दाखिल होते ही आज कमरे का समांकुछ और ही रंग में रंगा हुआ था सब की नज़रें बोर्ड पीआर लिखे गए सवाल जवाब पर थी। जिसे वह अपनी कॉपी में उतार रहे थे। पाठ एक “रख की रस्सी” रिमझिम की पहली कहानी जो एक लोक कथा के रूप मे है।


लता- कहानी में बहुत सारी भेड़े होती हैं। एक मंत्री है और वो अपने बेटे को बार –बार अपनी भेड़े देकर बाहर शहर में भेजता है। मंत्री के बेटे को वहाँ फिर एक लड़की मिलती है। जो बहुत समझदार होती है वो उसकी मदद करती है। मंत्री को जब पता चला तो वह एक राख़ की रस्सी बनाने को कहते हैं। लेकिन उससे पहले एक शर्त रखती है कि वो रस्सी उन्हें गले में पहननी पड़ेगी।

लड़की रस्सी बना देती है। लेकिन मंत्री नहीं पहन पता और लड़की की समझदारी देखकर खुश होकर उसकी शादी अपने बेटे से कर देता है।

लता की इस बात पर पूरी क्लास हंस पड़ी। जैसे कहानी के सीन से सभी परिचित हों। पर इस तरह सोचा न हो की जब मुंह जबानी अपने शब्दों में कहेंगे तो उसे सुनकर मज़ा और बढ़ जाएगा।


तभी प्राची मज़ाक मे लता से- हाँ-हाँ तेरी भी शादी राजा के बेटे से होएगी। तू भी तो बहुत समझदार है न।
लता ने तुरंत जवाब दिया- और क्या।

प्राची- चल चल वो तो मैडम ने तुझे सिर चढ़ा रखा है। 
लता- जी नहीं मेरे घर मे भी सब मुझे समझदार ही कहते हैं। मुझे कभी भी डांट नहीं पड़ती। मैडम ने तभी तो मुझे चाबी दी हुयी है। 

प्राची- वो तो इसलिए क्योंकि तू मैडम का काम जल्दी से कर देती है। बहुत होशियार बनती है न तू कभी-कभी अपने आप में। 


कहानी के भीतर अनगिनत द्रश्य और कुछ पात्र होते हैं। जिनके करीब जाने के दरवाजे होते हैं। जब हम इन द्रश्यों और किरदारों को पाठक बनकर समझते हैं। तब एक माहौल उभरता है जिसमें कई तरह की ज़िंदगियाँ मिलती है।   


Wednesday, May 29, 2013

क्लास में चलते संवाद का एक अंश



आज रोल नम्बर दरवाजे से शुरु होंगे सुनते ही मोनिका का जैसे दिमाग खराब ही हो गया हो। वह खीजती-सी अपना बेग उठाए खिड़की की तरफ चली। "प्राची तू मेरी सीट पर बैठ जा ना। मुझे खिड़की वाली सीट में बैठने दे ना।" कमरे के विभाजन पर ...."रोल नम्बर से बैठना जरूरी है" टिप्पणी करती प्राची ने उससे सीट बदल ली। क्योंकि मोनिका का नम्बर आगे वाली सीट पर था।

मोनिका भी सबके बीच से निकलकर खिड़की वाली सीट पर बैग पटकते हुए डेस्क पर चढ़कर खिड़की से लगकर जा बैठी। उसका पूरा ध्यान उस खिड़की के बाहर ही था। उसकी दोस्त ने उसे कई बार टोका "सुन ना, देख, जल्दी इधर आ ना,” मगर वह टस से मस न हुई। सबकी नज़र धीरे-धीरे उसी पर जा टिकी। एक खिलखिलाहट का माहौल इस कमरे में बन चुका था। जिसका केन्द्र बिन्दू सिर्फ मोनिका बनी रही। तभी वंशिका ने झुंझला कर उसका हाथ खींचते हुए कहा...
वंशिका- ऐ पागल...सब तुझपर हस रहे हैं क्या देख रही है बाहर?
मोनिका- चल पागल होगी तू। कल हमने खिलौनेवाला पाठ पढ़ा था न तो खिलौनेवाला दिख गया। बस उसे ही देख रही थी। क्या-क्या है उसके पास? मेरे खिलौने तो मेरे छोटे भाई-बहन ने ले लिए अब।
प्राची- मेरी तो फेवरिट है ये कविता।
मोनिका- मैने तो पहले से ही ये कविता पढ़ ली थी। लेकिन अब मैं खिलौनों से नहीं खेलती। मेरा भाई है ना रोने लगता है। उसकी चीज़ को हाथ भी लगाओ तो।
प्राची- हंसते हुए, मैं तो जब भी मेले जाती हूँ। हर बार कुछ न कुछ खरीद कर जरूर लाती हूँ। मेरी बहन-भाई भी। फिर हम खेलते हैं एक साथ। मेरे खिलौने कभी नहीं टूटते बहुत पुराने-पुराने खिलौने रखे हैं मेरे पास।
मोनिका- तूने इस बार क्या लिया था मेले से?
प्राची- बर्तनों का सेट वो भी बढ़े बर्तनों का।
मोनिका- मै तो नहीं लेती मेले से। मेले में हर चीज़ महंगी मिलती है। झूले देखे हैं जो हमारी गली के बाहर आता है वो 5 रुपये मे इतनी देर झूलाता है। मेले में तो चार ही चक्कर में उतार देता है और पैसे भी ज्यादा लेता है। यह बात सुनकर आशी बोल पड़ी- अरे हम पहले जहां रहते थे न वहां पर ये गुड्डे-गुड़िया बनते थे। इतने सारे गुड्डे-गुड़िया ‍ओटो-रिक्शा में भर-भर जाते थे। मुझे लगता है वो ही दूकान पर आ जाते हैं बाद में पैक होकर। मेरे जन्मदिन पर नेहा ने अपने घर से छोटा सा गुड्डा मुझे गिफ्ट दिया था।
प्राची- तुझे अब पता चला... मेले में जो रावन मिलते हैं ना हमारी गली के लड़के भी वैसे रावन बना लेते हैं और फिर रात को मेले वाले रावन के जलने के बाद उसे भी जला देते हैं।
आशी- "तारे ज़मीन पर”फिल्म में देखा था। वो बेकार चीज़ों से कैसे इतनी अच्छी नाव बनाता है।

"मैडम आ रही है, मैडम आ रही है" हांफते शब्दों के साथ भागती हुई एक साथी कमरे में दाख़िल हुई। कमरा एकदम सवरा-सा हो गया। अपनी-अपनी सीटों को थामते कदमों की हड़बड़ाहट में कविता पर चल रहा संवाद भी गुम हो चला एक मुस्कुराहट के साथ।


Tuesday, May 28, 2013

टीचर डे

प्रिंसिपल साहिबा से मिलने के बाद आज जब क्लास की तरफ रुख़ किया तब तक कुछ अन्दाज़ नहीं था कि आज क्या है? ना ही प्रिंसिपल से बात करते हुए ऐसा कुछ हमारी बातों के दरमियां आया। सिड़ियों से ऊपर जाते हुए कुछ साथी बहुत खूबसूरत ड्रेस में तैयार नज़र आए...नए कपड़े, कपड़ों का मेच खाता मेकअप और बेग भी। क्या बात है।

देखते ही नज़र ने उनका पीछा उनके दूर जाने तक किया। फिर कदम ऊपर जाती सिड़ियों पर दोबारा बढ़े। आज गैलेरी में सभी टीचरों का गुट जमा था। वह आज अपनी-अपनी क्लास छोड़कर यहीं डेक्स लगाकर डेरा जमाए हुए बैठी हैं।

दुआ-सलाम, हाय हैलो से जब आगे बढ़े तो एक टीचर ने कहा- आज भी कुछ कराने वाली हैं क्या आप? कुछ ख़ास करवाएं तो हमें भी बताना....उनकी बात पर हामी भरते हुए आगे क्लास की तरफ बढ़ी....क्लास में आवाज़ें तो रोज़ाना जैसी ही है लेकिन सब के सब आज पीछे नज़र आए...नज़दीक पहुंचने पर पता चला कुछ साथी तैयार हो रही थी।

तभी एक साथी बड़ी तेज़ आवाज़ में बोली- “ आज ये गीता मैम बनी हैं। आज ये हमें पढ़ाएंगी। लेकिन क्लास में इनकी बात कोई सुन नहीं रहा इसलिए ये चुपचाप आकर पीछे बैठ गई हैं और आपस में बाते कर रही हैं। कुछ सैकेंड में ही समझ आ गया था आज कि "टीचर डे" है।

आज टीचर का रोल ये साथी निभाने वाले हैं। सबको अपनी-अपनी सीट पर बिठाकर आज ये टीचर बने साथी इस क्लास को रचने वाले हैं। क्लास शुरु होते ही कुछ पल की शान्ति और फिर से आवाज़ों की गुनगुनाहट शुरु हो चुकी है। सबकी नज़र टीचर बनी उन दोनों साथियों पर थी और अब वह उनकी बातचीत का हिस्सा भी बनी। अब उनके कपड़ों को और मेकअप को दोहराया जा रहा था और फिर गीता मैडम से कम्पेयर करके बताया जा रहा था कि गीता मैम ऐसे कपड़े पहनती है, ऐसे बात करती हैं, ऐसे चलती हैं, इस तरह पढ़ाती हैं और इस तरह बात करती हैं। वह दोनों साथी जो एक ही टीचर का रोल अदा करने वाली है

पूरी क्लास अब इस प्ले के लिए तैयार एक दम शान्त थी। इस प्ले के दर्शक भी यही थे, कलाकार भी यही थे और इसे रचने वाले रचयिता भी यही थे। प्ले शुरु हुआ.....टीचर बनी साथी कमरे में दाख़िल हुई, “गुड मोर्निंग मैम" कहते हुए सभी साथियों ने उनका स्वागत किया। "सिटडाऊन" कहती हुई उस टीचर ने हाथों से बैठने का इशारा किया। तभी एक साथी ने तारीफ में कहा- मैम आप आप बहुत अच्छी लग रही हो। टीचर- मुस्कुराती हुई "थैंक्यू माई डियर”। फिर डेक्स पर हाथ की थपकी के साथ सबको एक बार फिर शान्त किया । अटैंडस शुरु हुई और उसके बाद एक पाठ पढाया गया।....(लग रहा था ये प्ले टीचर और स्टूडेंट के बीच ही चलेगा।) लेकिन वह टीचर एक संवादक के रोल प्ले करती नज़र आई। पाठ के चलते-चलते वह उसपर संवाद करने लगी.... कहानी में नए-नए चित्रों की कल्पना साथियों से करवाने लगी। इस वक़्त क्लास बहुत उमदा लग रही थी। इस प्ले में सब भागीदारी भी इमानदारी से निभा रहे थे।

टीचर से ये कल्पना नहीं की या देखा नहीं, वह उस पाठ के सवाल तला‌श रही थी। साथी भुला चुके थे। वह कौन-सी टीचर बनी और वह खुद भी याद नहीं रख पाई। प्ले करते-करते वह सब सिर्फ संवादक की भूमिका में नज़र आ रहे थे। वह साथी एक अच्छे टीचर की कल्पना को खोल रही थी जिसने अपने संवाद से पूरी क्लास को बांध रखा था।

Sunday, March 3, 2013

टीचर जब एक संवादक हो ...


बहुत कम होता है जब टीचर स्रोता बनकर इस कमरे में दाख़िल होती है और एक संवादक की तरह खुद को पेश करती है। हालांकि टीचर से बेहतर संवादक क्लास के लिए कोई नहीं है क्योंकि वह एक सफ़र तय करती है उस क्लास के साथ, उन 6 घंटो में कभी कई बहाने होते हैं तो कभी कई किरदारों से जूझती है। वह अपने रोल बदले ना बदले लेकिन साथियों के पल पल में बदलते रूपों से मिलती वह जूझती है।

चुप हो जाओ, शोर मत करो....आज इस कमरे में इन वाक्यों की जगह नहीं है या यूँ कहें कि टीचर शायद भूल गई है कि वह क्लास में है। वह इन वाक्यों को छोड़ इस कमरे में गूँजती आवाज़ों से चहकती नज़र आ रही है।

साथियों के बीच अपनी फिक्स छवि को खो चुकी वह टीचर खुद को उनके बीच रख पाने की कोशिश कर रही है। अगले दिन की प्लानिंग में टीचर ने एक संवादक के रूप में इस कमरे में कदम रखा है। कई तरह के ढांचे और अस्थिर माहौल ने करवट सी बदली है और क्लास ने एक मंच का रूप लिया है। इस भागते माहौल में वह टीचर के रोल को भूलकर शामिल हुई।

वह हर साथी के साथ ऐसे जुड़ती जैसे उससे पहली बार मिल रही हो। वह उस साथी की इच्छा पर एक संवाद कायम करती और नज़दीकी बरकरार करती। वह अपनी किसी फिक्स जगह में नहीं है। वह वो कौने तलाशती जो साथी अपने अनुभव से भरते हैं। टीचर की बैचेनी साफ झलक रही है। साथी उसे नए की तरह देखकर खुश होते और खुद को रखते....वह इस रूप को बहुत नज़दीकी से लेते और टीचर को अपने बीच शामिलगिरी में लेते नज़र आ रहे हैं। कौने का वो साथी जो हर बार खुद को छुपाता है कि कहीं वो टीचर उसे देख ना ले या उसे कुछ कह ना दे बजाय इसके वो हाथ करके उस टीचर को पास बुलाती और अपना राजस्थानी गीत सुनाती टीचर के चेहरे पर एक उल्लास और जिज्ञासा उभर आई इस बुलावे पर जैसे वह उस साथी से आज पहली बार मिली हो या वह साथी उससे पहली बार मुखातिब हुई है। अबतक सिर्फ नाम और रोल नम्बर का रिश्ता था पर आज श्रोता और कहंकार का रिश्ता है। जिसमें वह साथी ना स्टूडेन्ट है और न ही कोई नाम या रोल नम्बर।

चार साल के सफ़र के बाद ये क्लास उस स्तर पर है। जहाँ वह एक-दुसरे को जानकर कर रिश्ता बना चुके हैं। वह हर साथी की मूवमेंट को जानती है। मगर कभी परखा नहीं। वही परख वह आज करना चाह रही है। टीचर की दिलचस्पी साथियों के बीच से अनुभव बटोरते रहने की है। वह उनके निजी व‌क़्त को टटोल रही है और दैनिक जीचन में दाख़िल होना चाह रही है। वह उनके दैनिक जीवन की कहानियाँ और गीत सुनती। देखते ही देखते क्लास ए.बी.सी ग्रुप में विभाजित हुई। ग्रुप में ये भी तय हुआ कि कौन-सा ग्रुप क्या करने वाला है। प्रेक्टिस चल रही है। हर ग्रुप में पहली परफॉरमर वह खुद बनी। जब साथी हस पड़ते तो उनके साथ वह भी हस पड़ती। आज वह टीचर को उस चार साल के अनुभव और साथियों की दिलचस्पी को एक परफॉमेंस के थ्रू स्कूल में करवाने की कोशिश में नज़र आई। जिस कोशिश में क्लास ने आज कुछ व‌क़्त के लिए ही सही पर एक खूबसूरत तस्वीर ली।