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Friday, February 25, 2011

लिख-लिखकर याद करना



गीतांजली थोड़ा उसके डेस्क पर हाथ पटकते हुए- "क्या हुआ आज तू इतनी जल्दी आ गई" । सोनाली बेग डेस्क पर रखते हुए - "हाँ कल मैडम ने मुझे बहुत अच्छा गाना सिखाया था और जल्दी आने को कहा था। तुझे पता है वो आज भी हमें वही गाना दोबारा सिखाएंगी और मैं सबसे आगे खड़ी होऊँगी।" हाँ- हाँ पता है। तू तो मुझसे बढ़ी है ना मेरे पीछे खड़ी होना पड़ेगा।

सोनाली- 'देख' मैने तो वो गाना लिख भी लिया। गीतांजली- उससे कॉपी छीनते हुए तूने ये कहाँ से लिखा? सोनाली- "मेरे पास देश-भक्ति के गानों की किताब है, जो मेरी दीदी अपने लिए खरीब कर लाई थी।" जब मैं अपनी दीदी को यह गाना सुना रही थी तब उनहोंने कहा "मेरी इस किताब में ये गाना भी है। तू इसे अपनी कॉपी में उतार ले, तुझे जल्दी याद हो जाएगा।”


फिर मैने तुरन्त यह गाना उसमें से लिख लिया। आज जब मैडम वो गाना सिखाएँगी तो मैं इसमें से देख-देखकर गाऊँगी ताकि जल्दी याद हो जाए। तू भी लिख ले तुझे भी जल्दी याद हो जाएगा। गितांजली - हाँ-हाँ, यहाँ रख दे मैं भी लिख लेती हूँ। जल्दी मे बेग से कॉपी निकालते हुए पेंसिल नहीं मिल रही सोनाली? तू अपना पेन दिखा दे ना। ले जल्दी लिख प्रार्थना शुरु होने वाली है। फिर नहीं लिख पाएगी।

सोनाली ये गाना याद कैसे होगा इतना बड़ा गाना है। सोनाली- हो जाएगा मेरी दीदी ने कहा है लिख-लिखकर याद करने से जल्दी याद होता है। पेपरों मे भी अब मैं ऐसे ही याद करुँगी।


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Monday, February 21, 2011

खाली कमरा


इस कमरे के खाली रूप को धीरे-धीरे कदमो की आहटें और हंसी की गूँज जब भरने लगती है तब इस खाली कमरे का रूप कुछ यूँ लगता है जैसे न जाने आज कितने अनुभव बांटे जांयेंगे इस महफिल में| अचानक आवाजें` शुरू हो रही है| कमरे के खालीपन में धीमी से धीमी आवाज़ की गूँज भी सुनी जा सकती है| चिड़ियों की आवाजें इस खालीपन से ज्यादा और बेहतर कहीं नहीं सुनी जा सकती| खिड़की की रौशनी से पूरा कमरा भरपूर है| टयूबलाइट की रौशनी न के बराबर ही प्रतीत हो रही है|  

हंसी की गूंज और तेज़ी से आती क़दमों की आहटें बता रही है कि जल्द ही कमरे में कोई दाख़िल होने वाला है| तभी बाहर देखती हुई एक साथी कमरे में दाख़िल होते ही आगे डेक्स पर बैग पटकते हुए बोली - "आज मैं सबसे आगे बैठुंगी, मैडम के सामने| "  दूसरी भी उसके साथ बैग रखते हुए- "मैन भी " | बस इतना था कि दोनों दरवाज़े से बाहर हुई|

ठीक सामने ब्लेक बोर्ड पर कुछ प्रश्न-उत्तर लिखे हुए थे जो फिलहाल बीते हुए कल का पर्चा खोले हुए थे| ब्लेक-बोर्ड पर सिवाय उसके कुछ भी नहीं एक दम साफ जैसे वह किसी एक व्यक्ति के लिए ही लगा हो| साझेदारी का उसपर एक भी निशान कहीं भी गलती से नहीं हैं| आवाजों की गूँज लगातार बढती जा रही है शायद कुछ साथी कमरे के आस-पास और कुछ कमरे से दूर हैं जिसकी गूँज साफ सुनाई नहीं दे रही| वह शोर की तरह कानों को छू रही है| धीरे-धीरे कमरे में दाख़िल होते साथी अपनी-अपनी पसंद की जगह पर बैग रखते और कमरे से बाहर चले जाते और कुछ कमरे में ही बैठ रहे हैं| हल्की-हल्की धुप ने कमरे में दाख़िल होना शुरू कर दिया है जिससे कमरे में धूप का शेडो बिखर रहा है|  धीरे-धीरे डेक्स उस शेडो की तरफ खिंच रहे हैं |

अब कई बैग और पानी की बोतल डेक्स पर नज़र आने लगीं हैं| जो उन खाली ड़ेक्सों पर किसी की मौजूदगी को को रख रहे हैं| तभी एक घंटी की गूँज के साथ एक  साथी जैसे कमरे से बाहर नहीं जाना चाह रही| वो अपनी जगह से उठकर दीवार की तरफ बनी लाइन के सबसे पीछे के डेक्स पर एकदम शांत होकर जा बैठी| लेकिन उसकी आँखें बार-बार हल्की-सी आहट पर फ़ैल जाती और वो नीचे झुक जाती लग रहा था जैसे वो आहट उसी के लिए हो जिसे वह बख़ूबी समझ पा रही हो| चेहरे पर चौकन्नापन कहीं कोई उसे क्लास में देख न ले|

तभी एक टीचर ने दरवाज़े से अन्दर झाँका, कमरे में किसी को न पाकर उसने अपना बैग और रजिस्टर रखा और खुद भी बाहर हो चली| कमरा एक बार फिर शांत हो चुका था चिड़ियों की आवाजें फिर से साफ सुनाई दे रही थी तभी बाहर से एक गूँज सुनाई देने लगी जैसे बहुत से लोग एक साथ कोई धुन को सीखने का रियाज़ कर रहे हों| कुछ आवाज़ धीमे पर पहले आती और कुछ उसके बाद जो एक धुन की तरह होती|  इस आवाज़ के साथ ही वह साथी अब खड़ी होकर खिड़की से बाहर झांकते हुए बुदबुदाई...इससे तो अच्छा होता कि मैं प्रार्थना में चली जाती| अगर आज मैडम ने पकड़ लिया होता तो बहुत मार पड़ती|


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Tuesday, February 8, 2011

साथ चलने वाले सवाल


वे सवाल जिनके जवाब हाँ और ना में न हों?
वे सवाल जो सोचने को मजबूर करें?
वे सवाल जो कहानी के अन्दर के हों?
वे सवाल जो कहानी के बाहर ले जाएँ?
वे सवाल जो खुद बन जाते हैं?
वे सवाल जो सिर्फ पाठ के किरदार से पूछे गए हों?
वे सवाल जो लेखक से पूछे जाएँ?
वे सवाल जो चीजों पर आधारित हों?
वे सवाल जो परिचय के लिए हों?
वे सवाल जो पात्र को कहीं और ले जाएँ?
वे सवाल जो कहानी को उलटा कर दें?
वे सवाल जो कहानी को आगे बढ़ाएँ?
वे सवाल जो हमारे आसपास को किताब में जगह दे पाएँ?
वे सवाल जो किरदार को आसपास में तलाश सकें?
वे सवाल जो कहानी से हटकर हों?
वे सवाल जो कहानी के चित्रों को लेकर हों?
कहानी के पाठक और उसके किरदार के आपसी सवाल हों?
वे सवाल जो चुप कर दें?
वे सवाल जो किसी के नज़दीक ले आएँ या दूरी बना दें?
वे सवाल जिनके कई जवाब हों?
वे सवाल जो रिश्तों को खोल दें ?
वे सवाल जो चौंका दें?
वे सवाल जो कई संभावनाएँ दें?
वे सवाल जो किसी से अलग कर दें?
वे सवाल जो राहत दें?
वे सवाल जो नए सवालों को जन्म दें?



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सवालों की दुनिया



पाठ्य पुस्तक के सवाल ज़्यादातर पाठ पर आधारित होते हैं जो उस कहानी को दोहराने के लिए सहायक बनते हैं कि आपने कितना पढ़ा और समझा है। वे सवाल बहुत सहज होते हैं और बच्चों की कल्पना को उड़ान देते हैं। पाठ में बच्चों के लिखने के लिए बहुत कुछ होता है और अपने आसपास को देखने और सोचने के दायरे को बढ़ाता है। कुछ सवाल हमारी बनी-बनाई सोच के दायरे से बाहर होते हैं जिसमें हम ख़ुद को कई संभावनाओं में रखकर देखते हैं। कई बार वे हमारे लिए खुद को झंझोड़ने का एक ज़रिया बन जाते हैं जिसमें हम खुद की छवि को अपने से बाहर देखते हैं। उनमें हम किसी चीज़ को सोच के दायरे से बाहर रखकर उसे और कितना तलाशा जा सकता है इसकी संभावना तलाशते हैं।


कुछ सवालों के जवाब 'हाँ' और 'ना' से बाहर होते हैं। वे हमें एक शब्द से नहीं काटते बल्कि हमारी सोच को टटोलते हैं। उन पर ग़ौर करते हुए हम खुद तय करते हैं कि वे किससे जुड़े हैं- हमारे भविष्य से, बीते कल से, किसी ख़ास शख़्स से, किसी ख़ास जगह से, किसी कहानी या किसी विवरण से। एक ख़ास एहसास के साथ हमारी जुबाँ इन्हें दोहराती है या उनसे टकराव में आने वाले पल किसी और दिशा में ले जाते हैं। जब कोई खुला सवाल हमें छूकर गुज़रता है तब उन सवालों को हम अपने आस-पास से कैसे जोड़ पाते हैं? उनमें कैसे शामिल होते हैं और उनके भीतर ख़ुद को कितना तलाश पाते हैं?


हमारे समाज का जमा हुआ ढाँचा अपना एक निश्चित दायरा बनाकर रखता है। कुछ सवाल जब उन दायरों टकराते हैं तब वे नए सवालों को जन्म देते है। जैसे टीचर और स्टूडेंट के बीच सवाल पूछे जाने और जवाब देने का एक रिश्ता होता है। टीचर कभी नहीं बोल सकता कि उसे जवाब नहीं आता पर खुले सवाल जब उस संदर्भ में आते हैं तब बनी-बनाई छवि टूटती है और वे सवाल टीचर और स्टूडेंट के बीच की दूरी को कहीं गायब कर देते हैं और बराबरी का एक एहसास देते हैं।


वे सवाल जब दोस्तों की टोली में आते हैं तो बांटने का एक माहौल बन जाता है और उनके बीच होने वाली बातचीत गहराई में जाती है। खुले सवाल शहर को 'मैं' से हटाकर देखने की एक ख़ास निग़ाह देते हैं। हमारे आसपास कई ऐसी चीज़ें होती हैं जिन्हें हम अपने नज़दीक पाते हैं। इनसे जुड़े कई सवाल ऐसे होते हैं जिन्हें हम कभी दोहराते नहीं हैं। ये सवाल किसी ख़ास शख़्सियत पर न होकर उसके मार्मिक एहसास को खोजते हैं जिसमें उनके अनुभव बखूबी उतरते चले जाते हैं।


कुछ सवाल इस एहसास से बाहर होते हैं। वे सवाल जो हर किसी से पूछे जा सकें, जो बंदिश में न हों और किसी तीसरे शख़्स को शामिल होने का न्यौता दें। वे सिर्फ इस भाषा को लेकर ना हों कि हमने अबतक क्या पढ़ा है, क्या दोहराया है और किसे सुनाना है। उनमें यह कोशिश हो कि वे अपने अंदर और बाहर को बताकर, उसकी कम्पन को अपने आसपास छोड़कर उन्हें गति में कैसे रखते हैं, उस कम्पन को कैसे महसूस करते हैं और उनमें अपने कितने अनुभव जोड़ पाते हैं। हम अपनी ज़िंदगी के दायरों को अलग-अलग तरह से दोहराते हैं। शहर में ख़ुद को तराशते हुए कई तरह के रियाज़ों से गुज़रते हैं और उन्हें अपने अनुभव में जोड़ते हैं।


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मुलाकातों की जगह

मुलाकतों की इस जगह में अलग-अलग जगहों से आकर रोज़ाना मिलना कई संभावनाएँ पैदा करता है। यहाँ हर किसी के पास कहने को कुछ न कुछ होता है जिसे सब अपने-अपने अन्दाज़ में दोहराते हैं। कहानी कहना अपने आप में एक शैली है जिसमें एक संदर्भ बना पाने की क्षमता होती है।


कई कंहकार खुद-ब-खुद न्यौते में होते हैं! वे अपनी इच्छा, अपने गली-कूचे के विवरण, अपने सपने और वह सब बातें जिसे वे कहानी की तरह जीते हैं और बड़े गौर से कहानी की तरह ही अपने दोस्तों में, घर में, मोहल्ले में सुनते-सुनाते हैं। स्कूल में इस तरह के संदर्भ की कल्पना का आ जाना ख़ुद में एक संदर्भ तैयार कर लेती है और न्यौते में रखती है। हर किसी को उसमें जुड़ पाने की आज़ादी होती है।


मुलाकातों की जगहें हमें सुनने का माहौल देती है| हर साथी अपने अन्दर एक रचनाकार लिए हुए है|  माहौल बनने पर हर व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति रोजाना की महफिल में चलती रहती है|


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महफिल का बनना



रंगीलों के चेहरों पर आज रंगीनियत का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ है। कुछ अपने में लगे हुए हैं और कुछ आगे-पीछे होते हुए न जाने क्या तिकड़म कर रहे हैं। आज कई रंग नज़र आ रहे हैं इस महफिल में! कौन किसको क्या देगा और लेना वाला उसे कैसे लेगा, कुछ ठीक से समझ में नहीं आ रहा।


किसी ख़ास के दाख़िल होने से पहले ही महफिल शुरू हो जाती है। जब धीरे-धीरे उनमें शामिल होना हुआ तो पता चला कि दो-दो, चार-चार के ग्रुप में वे अलग-अलग संदर्भ बनाए हुए हैं जिसमें उनकी अपनी ही शामिलगिरी होती है। कभी किसी के कड़वाहट भरे शब्दों से तो कभी किसी कि हाय-हैलो से। कोई कल की ही किसी बात को दोहरा रहा है, तो कोई किसी को सुनना ही नहीं चाह रहा, बस अपनी कहने की कोशिश में उसकी बात को बार-बार काट रहा है। कैसे भी अपनी बात पूरी हो जाए।


चेहरों के कई भाव रोज़ाना इस महफिल को और भी रंगनुमा बनाते हैं। उसके बाद होता है सबका शामिल होना, जो इस महफिल को बोरियत से बाहर रखता है। लेकिन घंटी बजते ही रंगीलों के चेहरों के भाव बदल जाते हैं। कभी होम-वर्क पूरा न होने का डर, कभी पूरी ड्रेस में ना आने पर डांट का डर। कभी कुछ जैसे उनके मुताबिक नहीं हुआ तो कभी ऐसा हो जाता है कि "ये हुई ना कुछ बात"।



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सुनने-सुनाने का कमरा

वैसे तो ये कमरा सुनने के रियाज़ में हमेशा ही रहता है पर आज सुनने-सुनाने के रियाज़ में लग रहा है। जितने सुनने को तैयार है उतना ही सुनाने को बेताब भी है। कोई कविता कहना चाहता है तो कोई कहानी सुनाना चाहता है अपनी किताबों कि कहानियों से अलग जो उनहोंने अपनी दादी या नानी से सुनी थी। सब अपनी कहानी बॉर्ड के सामने आकर सुनाना चाहते थे जैसे हमेशा से होता आया है कि जिसे भी कुछ कहना होता है या किताब पढ़नी होती वह साथी सामने आकर सुनाता है।


मगर आज कुछ अलग करने का सोचा... सभी ने अपने डेक्स छोड़े और जमीन पर बैठे। सबको इस तरह बैठना शायद अजीब लग रहा था क्योंकि वह तो इस तरह सुबह प्रार्थना में बैठते हैं। फिर सब एक गोलाकार के आकार में बैठे जहाँ कहानी कहने वाला भी उनमें ही शामिल था। अब कविता शुरू हुई..."मन करता है" तीसरी कक्षा कि ही किताब से" तो बत्तो ने कहा मेरा मन करता मैं भी मैडम बन जाऊं और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनूँ, पूजा ने कहा: " मै तो पायलेन बनना चाहती हूँ ताकि ऊपर से सबको देखूं । तभी सोनाली मुझे भी कविता सुनानी है उसने भी ऐसी ही एक कविता सुना दी।


फिर ने अपनी दादी कि थोड़ी भुली हुई सी कहानी कहना शुरु किया, जब कहानी में कोई हसीं का वाक्य होता तो सभी एक-दुसरे के हाथों का स्पर्श करतेहुए हँसते या एक दुसरे पर झुक जातेऔर कहानी सुनाने वाला भी इसका हिस्सा बनता वो कहानी सुनाते हुए कभी रुकता कभी हँसता फिर सुनाता। उसे अपनी कहानी सुनाकर बैठने कि जल्दी नहीं थी। देखकर लग रहा था कि रोजाना के बैठने के रुटीन से हटकर अगर बैठने के अन्दाज को बदल दें या किसी और रियाज़ से उसे दोहराएँ तो वह उस रियाज़ को और गहरा कर देता है। किसी को कहानी अधुरी याद थी तो किसी को सिर्फ कुछ हँसी के वाक्य ही याद थे। सभी कहानियों से बाहर आकर अपने गांव के बारे में बताने लगे कि वह जब गांव जाते हैं तो कहाँ बैठकर या लेटकर कहानी सुनते हैं और उनकी नानी या दादी कैसे उसे कई बार टालने के बाद कोई कहानी सुना ही देती है। किसी कि नानी इतनी लम्बी कहानी सुनाती है कि उसे आजतक याद ही नही कि कहानी शुरु कहाँ से हुई थी उसे तो बस कहानी के हँसी वाले हिस्से ही याद हैं। तो किसी को काहानी कि शुरुआत ही याद है सब तसल्ली में जमे बैठे हैं सबके चेहरे से अजीब लगने का एहसास कहीं उड़ गया था कहानियों कि गर्माहट में,आज ये सुनना सुनाना एक महफिल कि तरह हुआ।



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अजनबी का क्लास में दाख़िल होना


करीब आकर, किससे मिलना है आपको?

आपनी सीट पर बैठे हुए ही पुछा "दीदी क्या नाम है उसका?”

पीछे ज़ोर चिल्लाते हुए एक बोली किसकी दीदी आई है?

फिर धीरे-धीरे बातों का कहीं गुम जाना।

फिर अपनी-अपनी सीट पर पहुँचना।

कमरे से अन्दर बाहर होना बन्द हो जाना।

बार-बार उपर से नीचे सामने खड़े व्यक्ति को देखना ।

फिर धीरे-धीरे मुस्कुराना।

काफी देर यही चलता रहा।

अपने साथी से सवाल करना- "क्या ये नई टीचर है?”

किसी का नज़रे मिलाकर हँस देना, तो किसी का नज़रे झुका लेना।

बार बार करीब आने की कोशिश करना।

फिर कहना आज हमारी मैडम नहीं आई।



पहले दिन क्लास में कदम रखते ही जब बहुत देर तक सिर्फ उन्हें देखना हुआ:


"यही सब चलता रहा सबको इन्तजार था कमरे में दाखिल हुए व्यक्ति के परिचय का। परिचय जैसे महत्व रखता है बातचीत को आगे बढ़ाने के लिए वरना वक़्त जैसे थम-सा जाता हो। उस वक़्त ये कमरा सिर्फ चेहरों के कई भावों को जीता है या नए सवालों को खोलकर अजनबी का परिचय सोचता रहता है।"



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दिन की शुरुआत

हमेशा कई सवालों से और कई संभावनाओं से होती है दिन की शुरुआत ब्लेकबॉर्ड की तारीख बदली होती है। ब्लेक-बॉर्ड साफ होता है या उसपर कुछ लिखा होता जिसे सभी साथी अपनी कॉपी पर उतार रहे होते हैं।

हर दिन एक सा नहीं रहता कभी कुछ साथी बाहर खेल रहे होते है तो कभी दूसरी क्लासों में झांक रहे होते हैं, कुछ वहाँ खड़े होते हैं जहाँ से आने वाला उन्हें दूर से ही दिख जाए ताकि वे भी बिना डांट खाए क्लास में पहुँच जाएँ, कभी-कभी वे किसी टीचर का मूड ठीक देखकर उनका स्वागत करते हैं और उनके साथ ही क्लास में दाखिल होते हैं।



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