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Tuesday, February 8, 2011

महफिल का बनना



रंगीलों के चेहरों पर आज रंगीनियत का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ है। कुछ अपने में लगे हुए हैं और कुछ आगे-पीछे होते हुए न जाने क्या तिकड़म कर रहे हैं। आज कई रंग नज़र आ रहे हैं इस महफिल में! कौन किसको क्या देगा और लेना वाला उसे कैसे लेगा, कुछ ठीक से समझ में नहीं आ रहा।


किसी ख़ास के दाख़िल होने से पहले ही महफिल शुरू हो जाती है। जब धीरे-धीरे उनमें शामिल होना हुआ तो पता चला कि दो-दो, चार-चार के ग्रुप में वे अलग-अलग संदर्भ बनाए हुए हैं जिसमें उनकी अपनी ही शामिलगिरी होती है। कभी किसी के कड़वाहट भरे शब्दों से तो कभी किसी कि हाय-हैलो से। कोई कल की ही किसी बात को दोहरा रहा है, तो कोई किसी को सुनना ही नहीं चाह रहा, बस अपनी कहने की कोशिश में उसकी बात को बार-बार काट रहा है। कैसे भी अपनी बात पूरी हो जाए।


चेहरों के कई भाव रोज़ाना इस महफिल को और भी रंगनुमा बनाते हैं। उसके बाद होता है सबका शामिल होना, जो इस महफिल को बोरियत से बाहर रखता है। लेकिन घंटी बजते ही रंगीलों के चेहरों के भाव बदल जाते हैं। कभी होम-वर्क पूरा न होने का डर, कभी पूरी ड्रेस में ना आने पर डांट का डर। कभी कुछ जैसे उनके मुताबिक नहीं हुआ तो कभी ऐसा हो जाता है कि "ये हुई ना कुछ बात"।



kiran

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