पाठ्य पुस्तक के सवाल ज़्यादातर पाठ पर आधारित होते हैं जो उस कहानी को दोहराने के लिए सहायक बनते हैं कि आपने कितना पढ़ा और समझा है। वे सवाल बहुत सहज होते हैं और बच्चों की कल्पना को उड़ान देते हैं। पाठ में बच्चों के लिखने के लिए बहुत कुछ होता है और अपने आसपास को देखने और सोचने के दायरे को बढ़ाता है। कुछ सवाल हमारी बनी-बनाई सोच के दायरे से बाहर होते हैं जिसमें हम ख़ुद को कई संभावनाओं में रखकर देखते हैं। कई बार वे हमारे लिए खुद को झंझोड़ने का एक ज़रिया बन जाते हैं जिसमें हम खुद की छवि को अपने से बाहर देखते हैं। उनमें हम किसी चीज़ को सोच के दायरे से बाहर रखकर उसे और कितना तलाशा जा सकता है इसकी संभावना तलाशते हैं।
कुछ सवालों के जवाब 'हाँ' और 'ना' से बाहर होते हैं। वे हमें एक शब्द से नहीं काटते बल्कि हमारी सोच को टटोलते हैं। उन पर ग़ौर करते हुए हम खुद तय करते हैं कि वे किससे जुड़े हैं- हमारे भविष्य से, बीते कल से, किसी ख़ास शख़्स से, किसी ख़ास जगह से, किसी कहानी या किसी विवरण से। एक ख़ास एहसास के साथ हमारी जुबाँ इन्हें दोहराती है या उनसे टकराव में आने वाले पल किसी और दिशा में ले जाते हैं। जब कोई खुला सवाल हमें छूकर गुज़रता है तब उन सवालों को हम अपने आस-पास से कैसे जोड़ पाते हैं? उनमें कैसे शामिल होते हैं और उनके भीतर ख़ुद को कितना तलाश पाते हैं?
हमारे समाज का जमा हुआ ढाँचा अपना एक निश्चित दायरा बनाकर रखता है। कुछ सवाल जब उन दायरों टकराते हैं तब वे नए सवालों को जन्म देते है। जैसे टीचर और स्टूडेंट के बीच सवाल पूछे जाने और जवाब देने का एक रिश्ता होता है। टीचर कभी नहीं बोल सकता कि उसे जवाब नहीं आता पर खुले सवाल जब उस संदर्भ में आते हैं तब बनी-बनाई छवि टूटती है और वे सवाल टीचर और स्टूडेंट के बीच की दूरी को कहीं गायब कर देते हैं और बराबरी का एक एहसास देते हैं।
वे सवाल जब दोस्तों की टोली में आते हैं तो बांटने का एक माहौल बन जाता है और उनके बीच होने वाली बातचीत गहराई में जाती है। खुले सवाल शहर को 'मैं' से हटाकर देखने की एक ख़ास निग़ाह देते हैं। हमारे आसपास कई ऐसी चीज़ें होती हैं जिन्हें हम अपने नज़दीक पाते हैं। इनसे जुड़े कई सवाल ऐसे होते हैं जिन्हें हम कभी दोहराते नहीं हैं। ये सवाल किसी ख़ास शख़्सियत पर न होकर उसके मार्मिक एहसास को खोजते हैं जिसमें उनके अनुभव बखूबी उतरते चले जाते हैं।
कुछ सवाल इस एहसास से बाहर होते हैं। वे सवाल जो हर किसी से पूछे जा सकें, जो बंदिश में न हों और किसी तीसरे शख़्स को शामिल होने का न्यौता दें। वे सिर्फ इस भाषा को लेकर ना हों कि हमने अबतक क्या पढ़ा है, क्या दोहराया है और किसे सुनाना है। उनमें यह कोशिश हो कि वे अपने अंदर और बाहर को बताकर, उसकी कम्पन को अपने आसपास छोड़कर उन्हें गति में कैसे रखते हैं, उस कम्पन को कैसे महसूस करते हैं और उनमें अपने कितने अनुभव जोड़ पाते हैं। हम अपनी ज़िंदगी के दायरों को अलग-अलग तरह से दोहराते हैं। शहर में ख़ुद को तराशते हुए कई तरह के रियाज़ों से गुज़रते हैं और उन्हें अपने अनुभव में जोड़ते हैं।
kiran
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